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रविवार, 26 अक्तूबर 2008

एक ऐसा ही दीप जलाओ!

परमार्थ में जीवन को ही मिटा दे,
दीप सा दधिची दूसरा हुआ कहाँ?
वह तो जलकर भस्म हुआ है,
हर मन में अभी उजाला कहाँ?

दीपक बन जल जाऊं मैं,
गर कलुषित मन धुल जाएँ,
तड़प सुनें सूने मन-आँगन की,
बस दिल उनके हिल जाएँ।

कितने घरों में सिमटा अँधेरा,
कल ही दीपक बुझा है घर का,
किसी का कुछ न बिगाडा था,
बस चैन खोजने चला था घर का।

अब तो मनुज बन जाओ सब,
जलने दो बाती दीपों में,
बूढी आँखों का नूर बचाओ,
बच्चों की मुस्कान बचाओ .

इस दीवाली में हर घर में ,
एक सद्भावना का दीप जलाओ,
सुख-शान्ति की कामना हो जिसमें ,
विश्व शान्ति की अलख जलाओ।

हर घर रोशन हो जगमग,
मन में भी उल्लास भरा हो,
वह दीप एक हो या माला हो।
बस रोशन घर का हर आला हो।

अब की ऐसी दीवाली मनाओ
खुशहाल हर घर को बनाओ!

बुधवार, 22 अक्तूबर 2008

आधार

जीने के लिए
एक ठोस धरातल चाहिए
रेत के ढेर पर
सजे जीवन के महलों को
क्या कहा जा सकता है।
रात के अंधेरे में
न जाने कब और कहाँ
ढह जाएँ अनजाने से
संशय की स्थिति में
जीते हुए वर्षों गुजर गए।
पलक मूंदते ही
ढहने के भयावह सपने
तैरने लगते हैं,
कहीं दूर बहुत दूर
धरा की तलाश में
चलते चलते थक गए
न कहीं छाँव , न दरख्त और न छतें
छाले फूटने लगे पाँवों के
पाँव भी सवाल करने लगे
मुझसे ही
कहाँ तलक चलना है
बेसबब, बेसहारा
ख़ुद अपना सहारा क्यों नहीं
बनती है
हम साथ हैं न,
पैर की धमक से रेत भी
चट्टान बन सकती है,
इरादे हों बुलंद तो
समंदर में भी
आग जल सकती है

शनिवार, 18 अक्तूबर 2008

शब्द!

इन शब्दों ने
सारे जहाँ को
अपने से बाँध रखा है।
रोते हुए अंतर
को सहला कर
कहीं वही मरहम बन-
शीतलता का दे अहसास,
शांत हो मन
सब कुछ भूल
आशा से निहार
कष्ट भूल जाता है.
और कहीं
कहीं शब्दों को पीड़ा
बेध जाती है अंतर को,
बरछे की धार सा आघात
लहूलुहान कर जाता है
मन को,
किस किस को देखाए
उन घावों को
उन नामों की फेहरिस्त
जिन्होंने छेदा है,
मेरे मन को.

सलाह

मेरे एक कवि मित्र बोले,
ये स्थापित कवि है
इनकी संगति में रहें
आप भी स्थापित हो जाएँगी
मैं असमंजस में
ये स्थापन किसका
मेरा या कलम का
हाथ जोड़कर क्षमा मांगी,
धन्यवाद! बंधुवर
मैं यायावर ही भली
ठहराव बाँध देता है,
यायावरी में विविध दर्शन तो है
फिर लेखन होना ही
अपने में एक स्थापन ही तो है.

मंगलवार, 14 अक्तूबर 2008

बेचारी

वह बेचारी
आंसुओं के सैलाब्में
उम्र भर
डूबती-तिरती रही
साँस मिलती रही
जीने के लिए जरूरी थी।
खोजती रही
किनारा
जहाँ सुस्ता ले जी भर
रह-रह कर वही त्रासदी
पीछे लगी रहती है
वह भी
सिसक सिसक कर
जीती मरती रहती है।
अचानक एक दिन
किनारे लग गई
छोड़ दिया उसने
सब कुछ बीच में ही
पर यह क्या,
किनारे आकर उसने
तोड़ दिया दम
सैलाब से बाहर
जीना उसे आता ही कहाँ था,
प्यासी मछली सा जीवन वहाँ था
सो चल दी
पूरी दुनिया को
अलविदा करके.

अभिलाषा

बहुत चाह की
लिखना छोड़ दूँ,
और आज से ही
इस कलम को
तोड़ दूँ,
पर
जब भी कोई भोगा हुआ यथार्थ
कर गया अन्तर पर आघात
आंसू की स्याही बन
भावों के हस्ताक्षर
खुदबखुद
कोरे कागज़ पर
दर्ज हो गए.

लावारिस - बावारिस

सुबह का अखबार
जब हाथ में आया
नजर पड़ी
एक तस्वीर पर
फिर उसका शीर्षक पढ़ा
सड़क पर फ़ेंक दिया
किसी सपूत ने
अपने अपाहिज और मृतप्राय पिता को,
उसने पाला होगा
बेटे बेटियों को
एक या दो होंगे
हो सकता है कि चार या पाँच हों।
सबको पाला होगा
हाथ से निवाला बनाकर खिलाया होगा
दुलराया और सहलाया होगा
फिर काबिल बनाकर
चैन कि साँस ली होगी
बुढापे कि लकड़ी
सहारे के लिए तैयार हो गई
पर पता नहीं कहाँ भूल हुई
लकड़ी बिच में ही चटक गई
औ' मृतप्राय जनक को सड़क पर पटक गई,
सड़क पर पड़े पड़े
दम तोड़ दी।
लोगों ने झाँका औ' किनारा कर लिया
शाम होने लगी
पुलिस आई औ' मृत्यु प्रमाण-पत्र बनवाकर
मुर्दाघर में लावारिशों में शामिल कर दिया,
लावारिस बना
दो दिन पड़ा रहा शव
बाद में लावारिस ही दफना दिया
पढ़कर यह दर्द कथा
दो ऑंसू टप-टप
गिरे अखबार पर
अनाम श्रद्धांजलि थी
या भविष्य में होनेवाली आशंका का भय
यह तो तय करेगा समय
यह तो तय करेगा समय।

सोमवार, 13 अक्तूबर 2008

पूजिता या तिरश्क्रिता

सीता पूजिता
क्यों?
मौन, नीरव, ओठों को सिये
सजल नयनों से
चुपचाप जीती रही।
दुर्गा
शत्रुनाशिनी
क्रोधित, सबला
संहारिणी स्वरूपा
कब सराही गई
नारी हो तो सीता सी
बनी जब दुर्गा
चर्चा का विषय बनी
समाज पचा नहीं पाया
उंगली उठी और उठती रही।
सीता कब चर्चित हुई
प्रशंसनीय , सहनशील
घुट-घुट कर जीने वाली
जब खत्म हो गई,
बेचारी के विशेषण से विभूषित हो
अपना इतिहास दफन कर गई।
समाज पुरूष रचित औ'
नारी जीवन उसकी इच्छा के अधीन,
स्वयं नारी भी
सीता औ' दुर्गा के स्वरूप को
पहचान कर भी
अनजान बनी जीती रहती है
पुरूष छत्रछाया में मंद मंद विष पीती रहती है।

***आई आई टी कानपूर के हिन्दी कविता प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार प्राप्त.

तृषित

बावरे मन
एक नीड़ की खोज में,
कलह भरे अनंताकाश में
क्यों भटकता रहा?
चंद क्षण शान्ति के लिए
छान आया तू
कोना कोना धरती औ' गगन,
अथाह शैवलिनी तू
अंक में समाये
अतृप्त अधर क्यों तेरे रहे?
लिए आस जीवन की
कितने दर देखे तुमने
महज मृगमरीचिका है,
यह सब
क्या हैं रिश्ते , क्या हैं नाते?
दुनिया ख़ुद प्यासी है,
तुझसे भी बदतर है,
चल तेरा पिंजरा बेहतर है।

**प्रकाशित २० नवम्बर १९८० (दैनिक "आज "में )

क्यों?

मेरे मन की खंडित वीणा के,
तारों में स्वर कम्पन क्यों?
स्वर लहरियां मचल रही हैं,
विरह राग की सरगम क्यों?

कुछ मधुर वचन की आशा में ,
मिले कटु औ' तिक्त स्वर क्यों?
टूटती लय कुछ बता रही है,
अंतर्वेदना मन की क्यों?

जग तो था ये मनहर बहुत,
जहर बुझे वचन फिर क्यों?
स्वयं भू की सर्वोत्तम कृति ,
मानव ने खोयी मानवता क्यों?

किसा भुलावे में भटकता मन,
शून्य के आयामों तक क्यों?
मिजराब मचलती तारों पर ,
नीरव हैं फिर सारे स्वर क्यों?

***प्रकाशित १९७८ में.

शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2008

नारी - व्यथा

जीवन जिया,
मंजिलें भी मिली,
एक के बाद एक
बस नहीं मिला तो
समय नहीं मिला।
कुछ ऐसे क्षण खोजती ही रही ,
जो अपने और सिर्फ अपने लिए
जिए होते तो अच्छा होता।
जब समझा अपने को
कुछ बड़े मिले कुछ छोटे मिले
कुछ आदेश और कुछ मनुहार
करती रही सबको खुश ।
दूसरा चरण जिया,
बेटी से बन बहू आई,
झूलती रही, अपना कुछ भी नहीं,
चंद लम्हे भी नहीं जिए
जो अपने सिर्फ अपने होते।
पत्नी, बहू और माँ के विशेषण ने
छीन लिया अपना अस्तित्व, अपने अधिकार
चाहकर न चाहकर जीती रही ,
उन सबके लिए ,
जिनमें मेरा जीवन बसा था।
अपना सुख, खुशी निहित उन्हीं में देखि
थक-हार कर सोचा
कुछ पल अपने लिए
मिले होते
ख़ुद को पहचान तो लेती
कुछ अफसोस से
मुक्त तो होती
जी तो लेती कुछ पल
कहीं दूर प्रकृति के बिच या एकांत में
जहाँ मैं और सिर्फ मैं होती.

शुक्रवार, 3 अक्तूबर 2008

अंतरीप

रे मन तू अंतरीप बन जा
क्यों डूबा रहता है मन
अंहकार के घोर तिमिर में,
भटक न जाएँ कदम तुम्हारे
जीवन की इस कठिन डगर में ,
शांत, मूक औ' सजग दीप बन जा
रे मन तू अंतरीप बन जा।
भौतिकता के तेज दौड़ का
अनुगामी न होना तू,
पाकर शक्ति धन या जन की
अभिमानी न होना तू,
मोती वाली एक मूक सीप बन जा
रे मन तू अंतरीप बन जा।
सुख हो दुःख हो या हो धूप छाँव
शीतलता हो या बढे उष्णता ,
ज्वार-भाटों के आवेगों में
रखना सदा बनाये दृढ़ता ,
संतापों से दूर सदा शांत द्वीप बन जा
रे मन तू अंतरीप बन जा।
कितना ही सिर मारें लहरें
तूफानों का वेग प्रचंड सहो,
निश्चल, अटल, मध्य सागर के
खड़े सदा ही निर्संवेग रहो,
अंतर के भावों का भी तू महीप बन जा
रे मन तू अंतरीप बन जा.