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सोमवार, 13 अक्तूबर 2008

पूजिता या तिरश्क्रिता

सीता पूजिता
क्यों?
मौन, नीरव, ओठों को सिये
सजल नयनों से
चुपचाप जीती रही।
दुर्गा
शत्रुनाशिनी
क्रोधित, सबला
संहारिणी स्वरूपा
कब सराही गई
नारी हो तो सीता सी
बनी जब दुर्गा
चर्चा का विषय बनी
समाज पचा नहीं पाया
उंगली उठी और उठती रही।
सीता कब चर्चित हुई
प्रशंसनीय , सहनशील
घुट-घुट कर जीने वाली
जब खत्म हो गई,
बेचारी के विशेषण से विभूषित हो
अपना इतिहास दफन कर गई।
समाज पुरूष रचित औ'
नारी जीवन उसकी इच्छा के अधीन,
स्वयं नारी भी
सीता औ' दुर्गा के स्वरूप को
पहचान कर भी
अनजान बनी जीती रहती है
पुरूष छत्रछाया में मंद मंद विष पीती रहती है।

***आई आई टी कानपूर के हिन्दी कविता प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार प्राप्त.