चिट्ठाजगत www.hamarivani.com

गुरुवार, 20 अगस्त 2009

साहस तो करती माँ तुम!

माँ मुझको बतलाओ
क्यों मुझको सौपा तुमने
इन हत्यारों को?
दूर कहीं जाकर
फेंका था मुझको
निर्जन रास्तों या गलियारों में
बोल नहीं सकती थी
पर अहसास तो
किया था मैंने,
एक फटे कपडे में
लिपटी
कब तक झेल सकी थी
मैं
बारिश के तेज थपेड़ों को
चली गई
दुनिया की नजरों में
पर बसी हूँ
अब भी
तुम्हारी सूनी आंखों में
मैंने भी देखा था
माँ तुमको
ओंठ भींच कर सहते सब कुछ
कभी बैठ कमरे में,
कभी छिपा कर मुंह तकिये में,
फूट-फूट कर रोते,
कभी बैठ पूजाघर में
ईश्वर से कुछ कहते,
भले मैं थी
तुम्हारे गर्भ में
पर सहे तो मैंने भी
थे दर्द तुम्हारे सारे।
साहस तो करती माँ तुम,
लड़ने का अपने हक से
मुझे बचा सकती थीं
छीन के इन हैवानों से
क्या दोष था मेरा?
माँ जो सबने मुझको मार दिया,
गुनाहगार तुम भी हो
माँ
जो सौंप दिया
तुमने उनको,
बन जाती गर
दुर्गा तो काँप जाते
वे हैवान
पर माँ तुमने भी
तो मेरा दर्द न जाना।
कब तक बन सीता
अपने अंशों को
मरने के लिए
देती रहोगी।
उन्हें जीवन देकर भी देखो
कल
वही दुर्गा बन
शक्ति तुम्हारी बन जायेंगी।
एक मूक माँ के आगे
बन के ढाल अड़ जायेंगी
मुझको जीवन देकर देखो
एक इतिहास नया रच जायेंगी।