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शनिवार, 29 नवंबर 2014

रिश्तों की परिभाषा !(Aruna(

रिश्ते बनते हैं
बिगड़ते हैं और
और फिर ख़त्म हो जाते हैं।
कहते हैं
खून के रिश्ते
ऊपर वाला बनाता है
वे अमिट होते हैं
खून के रंग से
गहरे और रगों में
बहते हैं।
वक़्त ने रिश्तों की
परिभाषा बदल दी ,
लक्ष्मी ने खून को
पानी कर दिया।
स्वार्थ ने अपने को
पराया कर दिया।
बस एक रिश्ता आज भी
जिन्दा है उसी तरह
वो  रिश्ता है
दर्द का रिश्ता।
भुक्तभोगी समझ लेता है
अपने से पीड़ित का दर्द
फिर अपने सा दर्द समझ कर
उसके काँधे पर रख कर हाथ
जो सहारा देता है ,
उसको लिख कर बयान करना
नामुमकिन है। 

गुरुवार, 11 सितंबर 2014

हाइकू !


नवरात्रि में
कन्या पूजन किया
फिर की हत्या .
*******
या देवि कहो
या फिर देखो उसे
भोग्या का रूप .
*******
पूजिता तो है
वह हर हाल में
जननी है वो.
*******
तुम जन्म दो
हम पालेंगे उसे
हमें दे देना।
******
जिस  घर में
पसरा है अँधेरा
बेटी जन्मी है।
******
 

सोमवार, 8 सितंबर 2014

ऐसा भी होता है !

कितने अजीब 
होते हैं ये भाव 
मन में उमड़े बादल से 
जल्दी से उठी 
सोचा दर्ज कर लूँ ,
कागज और कलम 
जब तक हाथ में आई 
वो कपूर की तरह 
काफूर चुके थे। 
बहुत सोचा 
वो शब्द क्या थे ?
वो बात क्या थी ?
शब्दों में से कोई एक 
पकड़ में नहीं आया 
और फिर 
कलम रख दी। 
कुछ  लिखने को था ही कहाँ ?

गुरुवार, 4 सितंबर 2014

कठपुतली से पर्दानशीं तक !

जिंदगी अपनी
जन्म से
जिनके हाथों में ,
जिनकी मर्जी पर
और जिनके लिए
जीते रहे ,
 उस  रूप को
हम आज कठपुतली का
नाम देते हैं।
शास्त्रों ने जिसे
शास्त्रोक्त बताया
उसी तरह जिया हमने।
चाहे वह
,बेटी  बहन , पत्नी या फिर माँ रही हो।
सात पर्दों में रखा ,
 फिर भी साया
और शासन पुरुष का रहा।
वक़्त बदला
धीरे धीरे
खुद को संभाला
कदम से कदम मिलाने की
शक्ति और शिक्षा पायी
खुद को आज़ाद किया।
लेकिन आधी आबादी
खुली हवा में सांस लेती
शेष आधी आबादी का
दम घुटने लगा
फिर कुछ ऐसा करने लगे।
बंदिशे उसको खुद ओढनी पड़ें।
कभी खींचा , कभी घसीटा
कभी तार तार कर दी अस्मत,
 कभी सूरत बिगाड़ दी ,
सोचा चलो फिर से 
पर्दानशीं हो जाएँ। 
वे खुश रहें और हमें भी रहने दें।

मंगलवार, 26 अगस्त 2014

दर्द पेड़ों का !


दर्द पेड़ों का
समझ नहीं सकते ,
 बदलते हुए मौसम ने
उन्हें पत्तों से जुदा  कर दिया .
मेरे आँगन में खड़े
वो दो अमरूद के पेड़
जिनके आंसुओं की जगह
पत्ते गिर रहे हैं
पतझड़ गुजरे
 महीनों हो गए।
फिर से फूलने के दिन हैं
और वे भादों में
लहलहाने और फूलों से लदे होने के
अहसास को भूल गए।
अगहन में
जब बच्चे घर आएंगे
तो उनको क्या मुंह दिखाएंगे ?
न पात हैं ,
न फल होंगे ,
अपने नाम पर
शर्म आएगी हमें।
प्रकृति बदली ,
 हम  वहीँ खड़े हैं।
इस  दर्द को जी रहे हैं .

गुरुवार, 17 जुलाई 2014

जला घर किसी का !

अंतर की ज्वालामुखी 
जब पिघलती है 
लावा बन 
वो कलम से 
आग उगलती है। 
वाह ! वाह ! 
सुनकर वो 
सिर पटक कर 
रो देती है - 
दर्द सहा उसने ,
जहर पिया  उसने ,
मन की तपिश में झुलसी 
क्या उसकी 
तपिश को 
किसी ने महसूस किया ?
नहीं बची संवेदनाएं 
जो उसकी कलम से निकले 
लफ्जों की 
तपिश , बेबसी और खामोश बगावत को 
समझा तो होता ,
रोता नहीं फिर भी 
काँधे पर हाथ रखा तो होता। 
सहने का और साहस मिलता। 
लेकिन वो वह बहरूपिया बनी। 
जो खुद रोता था 
अपनी बेबसी पर 
लोगों ने उसे तमाशे का हिस्सा जाना।

बुधवार, 4 जून 2014

आंसुओं से नाता !

नारी तू 
लेकर नाता 
अपने आंसुओं से 
धरती पर 
पैदा ही क्यों हुई ?
जब छोटी सी बच्ची 
भर भर आँखें 
क्यों रोती है ?
जोड़ कर 
अपनी गुड़िया से 
रिश्ता स्नेह का 
विदा किया तो 
फूट फूट कर रोई। 
उम्र बढ़ी तो 
हर पल ये अहसास 
उसको जाना है ,
वह परायी है ,
ये उसका घर नहीं ,
बार बार उसको रुला जाता है। 
कभी ख़्याल आता 
जन्म से लेकर 
इस दिन तक 
जिनके साये में जिया 
प्यार जिनसे लिया 
उन्हें छोड़ कर जाऊं कैसे ?
बस आँखे भीग भीग जाती हैं। 
डोली में रखते ही कदम 
वो देहरी परायी हो गयी 
वो माटी , घर , माँ बाप सभी
छोड़ कर चली परदेश 
सारे रिश्ते पराये हो गए 
जन्म के रिश्ते ,
छूटे पीछे , 
टूटे घरोंदे ,
 बिखरी गुड़ियाँ 
जब जब सोचा 
भर भर आयीं उसकी आँखें। 
दूसरे घर में भी 
उसको कहाँ मिला अहसास 
वो उसका अपना ही घर है ,
उसे अपना बनाने में
जीवन भर खुद को 
कुर्बान कर दिया 
उस क़ुरबानी के बाद भी 
हाथ तो सिर्फ 
आँखों की नमी ही आई। 
बेटी पाकर गोद में 
उसमें खुद को पा लिया ,
वही उसको पाला  पोसा
फिर अपनी तरह। 
उसको भेजा पराये घर 
फिर फूट फूट कर रोई।
शायद यही नियति है तेरी

मंगलवार, 3 जून 2014

मौत !

मौत तू 
चुपचाप आना 
आहट तेरी सुनकर 
सब काँप जाते हैं। 
जानते हैं हम 
तुझे आना ही है 
एक दिन 
लेकिन 
इतना रहम करना 
झपट कर 
जल्दी से ले जाना। 
दूर से आती 
तेरे आने की सदा 
तेरे  आने तक 
सौ सौ बार 
मेरे संग औरों  को भी 
मारती रहती है। 
इतनी निर्मम 
इतनी निष्ठुर 
रेंग रेंग कर 
धीरे धीरे आती है जब 
थक जाता है 
तेरे  इन्तजार में 
जाने वाला।  
मौत तू जल्दी आना।

सोमवार, 2 जून 2014

हाइकू !

हाइकू !
माँ बेटों को थी
आँचल में छिपाए
तपती रही।
*****
रिश्तों का दीप
स्नेह मांगता ही है
जलेगा कैसे?
******
उदास मन
खामोश थी कलम
लिखूं तो कैसे ?
*******
जंग जीतना
आसान नहीं होती
उसूलों की हो।
******

शनिवार, 3 मई 2014

हाइकू !


कुलदीपक
आज भी जरूरी हैं
कन्या मार दो।
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चाहे न डालें
गले में गंगाजल
चाहिए वही।
******
कहाँ तक न
खोजा  कुलदीपक
अंत आ गया
*******
आवाज ही दी
बेटी तो आँखें भर
निहार रही।
*******
पत्थर पूजे
माँगा तो बेटा ही था
बेटी हुई तो ?
********
आंसूं निकले
शक्ल बेटी की देख
श्राद्ध न होगा।
******
नाम बेटी का
लेना भी गुनाह था
आज रो पड़े।
********

बुधवार, 9 अप्रैल 2014

जीवन : पानी का बुलबुला !

जीवन
एक बुलबुला है ,
जैसे बारिश की बूँदें 
 भरे हुए पानी में 
अपने अस्तित्व को
एक बुलबुला बनकर
जीवित रखती हैं ,
उनके अंदर की प्राणवायु 
उनके अस्तित्व का 
आधार बना  रहता है। 
वह कितने छोटे छोटे बुलबुलों को 
अपने में समाकर 
बढ़ने लगता है। 
जैसे मानव अपने अस्तित्व के साथ 
और जीवनों को देकर अस्तित्व ,
एक से अनेक बनकर 
जीवन के आधार बढ़ाता है। 
किन्तु उसकी प्राणवायु 
सबमें बँट कर 
खुद में कम होने लगती है। 
प्राणवायु के जाते ह
बुलबुला पानी के साथ पानी 
बनकर बहने लगता है।
 वैसे ही जीवन भी तो 
चलती साँसों का खेल है। 
वे कभी महीनों तक 
 सिर्फ साँसों के सहारे 
जीवित कहे जाते हैं 
जीवन उस काया में 
 शेष कहाँ होता है ?
वह तो  संज्ञाशून्य सा 
"है" और " थे"के 
बीच झूलता रहता है 
और 
फिर कभी उस "थे" पर 
मुहर लगती है और 
जीवन जिनसे बना था 
उन्हीं पञ्च तत्वों में समां जाता है।
 

सोमवार, 24 मार्च 2014

वे यकीन नहीं करते !

                                  कलम का एक लम्बा विराम और फिर उठ कर चलने का प्रवाह सब अपना ही मन है।  कहीं बिंधी रही जिंदगी किसी  काम में - फिर चल पड़ा सफर और साथ हम आपके हैं .

आज उतरते हुए गाड़ी  से जो उनने देखा ,
कभी मीलों पैदल चलने से पड़े छालों की बात
सुनकर मेरी ही बातों पर वे यकीन नहीं करते।


आज के इस रोशनी से जगमगाते हुए घर ,
कभी एक लालटेन में पढ़े हैं चार बच्चे घर में
 बार बार कहने पर भी वे यकीन नहीं करते।

एक ही वक़्त जिंदगी का मेरी ऐसा भी था ,
ऑफिस में की बोर्ड पर चलने वाली ये अंगुलियां ,
आँगन गोबर से लीपती थी यकीन नहीं करते।

जिंदगी में अपनी देखे हैं कैसे कैसे मंजर ,
इम्तिहान लेने को खड़े थे कुछ बहुत अपने ,
हारे नहीं हम जीत कर निकले वे यकीन नहीं करते।