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सोमवार, 12 अक्तूबर 2015

मेरी डायरियां !

मेरी डायरियां 
मेरी संवेदनाओं की साक्षी ,
बचपन से अब तक की साथी ,
उम्र के साथ 
उनकी उम्र नहीं 
उनकी संख्या बढ़ती गयी। 
इनकी कीमत 
मेरे सिवा 
कोई समझ नहीं सकता। 
इस घर में,
मैं अपनी थाती 
सीने से लगा कर लाई थी। 
मुझे मोह नहीं था 
कोई मेरे कपडे ले ले 
कोई गहने भी ले जाए 
पर 
हाथ लगाना उन्हें 
कतई गवारा न था। 
किन्तु 
 हाय रे किस्मत 
मेरी डायरियां 
 उस वृहत  परिवार में 
वे आँख की किरकिरी बनी थी ,
क्योंकि 
वे मुझे उन सबसे अलग 
खड़ा कर रही थी। 
वो इज्जत जो मिली 
जो चर्चा का विषय बना रही थी। 
फिर मेरे घर से जाते ही 
वे बेच दी गयीं रद्दी में ,
कुछ  पेज ही लिखे थे  जिनमें 
फाड़ कर उन्हें 
व्यंजन की डायरी बना दिया। 
मेरे लिखे 
मेरे भाव और संवेदनाएं 
कोडियों के मिल बिक गए। 
पर क्या मुझे 
 कलम से 
कविता से 
भावों की अभिव्यक्ति से 
 कोई वंचित कर पाया ,
शायद नहीं। 
हाँ मैं अपनी डायरियों के लिए 
आज भी रो लेती हूँ. 
उसमें लिखा था 
 अपने किशोर मन के भावों को ,
उसमें लिखा था 
अपने प्रिय स्वर्गीय भाई की यादों को ,
कुछ लोगों ने मिटा दिया। 
वे थी उन दर्द भरे लम्हों 
और  
एक बहन के कष्ट के साक्षी 
सब  ख़त्म कर दिया।  
उनके लिए वह 
सिर्फ कागजों  का पुलिंदा था। 
पर मेरे लिए वे मेरी 
जिंदगी सी थीं,
और मेरी जिंदगी का
एक हिस्सा काट कर 
मुझे अधूरा बना दिया।
 

शुक्रवार, 18 सितंबर 2015

रिश्तों की बगिया !

हाँ 
मैं रिश्ते बोती हूँ , 
धरती पर उन्हें 
रोपकर 
निश्छल प्यार ,
निस्वार्थ भाव,
और अपनेपन की 
खाद - पानी देकर 
उनको पालती हूँ। 
धूप , पानी और शीत से 
कभी बहा कर पसीना 
कभी देकर सहारा 
कभी पौंछ कर आंसू उन्हीं के 
लगाकर काँधे 
समेत कर सिसकियाँ 
बेटी , बहन और बहू के रिश्ते 
जीवन में संजोती हूँ । 
बेटे , भाई और दोस्त के 
रिश्ते भी उतनी ही शिद्दत से 
बोये और संजोये हैं। 
कहते हैं लोग 
तुम्हरे रिश्ते तो 
दुनियां में पनप रहे हैं। 
कैसे याद रखती हो ?
नहीं ऐसा नहीं है ,
कभी आंधी , तूफान और बाढ़ में 
उड़कर , बहकर और दबकर 
रिश्ते भी कुचल जाते हैं। 
लेकिन वे मरते नहीं 
वक्त उन्हें फिर जीवन देता है। 
जड़ें उनकी इतनी गहरी हैं 
कि छंटते ही बादल 
या फिर दबे हुए 
ढेरों मलबे के नीचे 
सांस फिर भी ले रहे होते हैं। 
वर्षों और दशकों बाद 
जब फिर सर उठाते हैं ,
तो मैंने बोया था 
सुनकर भूले नहीं होते है ,
फिर से लिपट जाते हैं। 
आँखों से गिरते हुए आंसुओं में 
वो अंतराल की दीवार 
ढह जाती है। 
मैं तो वहीँ खड़ी हूँ ,
वटवृक्ष सी 
मेरी लताएँ , पौधे 
औ'
वृक्ष बन 
एक बगीचा बन चुका है। 
उसमें बसी 
फूलों की खुशबू 
महका रही है 
मेरे जीवन की बगिया। 
 हाँ मैं रिश्ते बोती हूँ ,
उनमें जीती हूँ और उनमें रहती हूँ।

बुधवार, 16 सितंबर 2015

मैं हिन्दी हूँ !

अपनी इस कविता को मैंने जानबूझ कर हिंदी दिवस पर नहीं डाला क्योंकि हिंदी हमारे लिए सिर्फ एक दिन अलख जगा कर चिल्लाने की चीज नहीं है।  उसके लिए प्रयागत्नशील हमारे साथियों के प्रयासों में एक निवेदन ये भी समझा जाय।

क्या हम गुनहगार नहीं ?
मुख से 
जो फूटा था 
शब्द प्रथम - वो 'माँ' ही था ,
मदर , मॉम या  मम्मी नहीं। 
अर्थ बहुत हों 
भाव एक हो 
फिर भी क्यों?
अपनी माँ मांगे 
घर में हक़ अपना 
औ'
अपने ही बेटे 
आवाज उसकी सुन न पाएं। 
कानों में ॐ 
जिव्हा पर ॐ 
किस भाषा में लिखा गया था ?
आज वही 
हम बोलने से कतराते हैं ,
बच्चे बोलें तो शर्मिंदगी लगती है। 
अपनी संस्कृति से 
अब परायी प्रिय लगती है। 
शर्म उन्हें नहीं आती है ,
जो जन्मे इस धरती पर 
पैरोकार बने विदेशी भाषा के 
शान से बोलते हैं। 
उनके अपने सुनने वाले 
सिर धुनते हैं। 
नाज तो उन पर है ,
जो विदेशी जमीन पर 
हिंदी का परचम लहर रहे हैं। 
सिखा रहे हैं 
और विश्व में एक महत्वपूर्ण भाषा 
बनाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। 
किस तरह अपने प्रयासों से ,
हम जिसे देश में 
स्वीकार नहीं कर पाये 
राजभाषा तक। 
हिंदी भी अपने हक़ के लिए 
साल में एकबार 
अखबारों ,
जलसों , प्रतियोगिताओं में 
जोर शोर से 
अपनी ही धरती पर 
अपने बारे में 
अपनी महिमा सुनती है। 
फिर पूरे साल 
दफ्तरों में , अदालतों में 
सिसकती रहती है।

 
 

शनिवार, 25 जुलाई 2015

हाइकू !

आज`राजनीति पर कुछ हाइकू !

राजनीति में 
सब कुछ जायज 
स्याह सफेद !
*******
मत उछालो 
कीचड दूजे पर 
तुम भी थे। 
*******
सात पर्दों में 
छिपा अपराध भी 
खुला जरूर। 
*******
कितना मिले 
कितना समेट लें 
ख़त्म न हो जो। 
*******
लोकतंत्र में 
जुटी हुई भीड़ की 
क्षमता शून्य। 
*******
राजतन्त्र में 
चिपके सत्ता से वो 
वही लोकतंत्र। 
*******

मंगलवार, 23 जून 2015

हाइकू !

कुछ हाइकू रिश्ते के नाम पर ----

रिश्तों में प्रेम 
रिश्तों के बीच खून 
कौन गहरा ?
*****
रिश्तों को ढोना 
बोझ से भी कठिन 
उतार ही दो। 
*****
घर बनेगा
मकान ये निर्जीव
सींचो प्रेम से। 
*****
रिश्ते की डोर 
है बड़ी कमजोर 
थामे रहना। 
******
प्रेम से भरो

गागर रिश्तों की 
मन तृप्त हो। 
******

सोमवार, 22 जून 2015

माँ से मायका !

'म ' इस शब्द का
कितना गहरा रिश्ता है ?
हर इंसान से
खासतौर पर
हर औरत से।
'म' से 'मैं'
''म' से 'मेरी /मेरा '
'म' से 'माँ'
'म' से 'मायका '
एक कहावत है न ,
माँ से मायका। .
पता नहीं कितना सोचकर
कितने अहसासों के बदले
कितने आहत मनों ने
इसको गढ़ा होगा।
कभी गुजरते हुए  सड़क पर
जाती हुई बसों पर
देखकर 'मायके के शहर /गाँव का नाम
आँखों में चमक  आ जाती थी।
मन करता था
दौड़कर बैठ जाऊं
औ'
पहुँच जाऊं माँ के पास।
जब से माँ गईं 
अब भी वह शहर वही है ,
वह घर भी है ,
और घर में रहने वाले सभी लोग.
लेकिन 
सिर्फ माँ तुम नहीं हो। 
रोका नहीं किसी ने 
बाँधा भी नहीं किसी ने 
बुलाते हैं उसी तरह 
फिर भी 
पता नहीं क्यों ?
अब माँ वो अपनापन 
क्यों दिल को छूता नहीं है?
अब भी बसें वहां जाती हैं ,
मेरे सामने से भी गुजरती हैं ,
लेकिन 
अब 
अब नहीं रही वो ललक 
नहीं आती है 
मेरी आँखों में वो चमक 
क्यों माँ ?
क्या जो कहा  गया था वो
वो सच ही है न। 
क्योंकि वो अब 
आगे वाली पीढ़ी के लिए 
मायका बन चुका है। 
मेरा मायका तो माँ 
तुम्हारे साथ ही चला गया। 
मैं इस शब्द के साथ 
बहुत अकेली रह गयी।

शुक्रवार, 19 जून 2015

वजन रिश्तों का !

आज निकले
मन की तराजू लेकर
तौलने वजन रिश्तों का ।
हमने तो जीवन भर
दिया सबको
अंतर मन से वांछित ,
पर शाम तक
लौटने के समय तक
कोई मुझे वक्त ही न दे पाया
तौलती मैं क्या ?
सजे हुए घर
मेज पर लगे नाश्ते की प्लेटें
या हाथ बांधे खडी
उनके कामगरों की फौज ।
खाली तराजू ,
भरा मन औ'
रिक्तता का अहसास
लेकर वापस आ गयी।

शनिवार, 9 मई 2015

हाइकू !

माँ  मेरी तुम
ममता का आँचल 
छाँव घनी हो। 
****
लोरी तुम्हारी 
पीड़ा हरे हमारी 
आये निंदियां. 
*****
तुमने छोड़ा 
अनाथ हुए हम 
पीड़ा भरी है। 
*****

कभी तो आओ 
सपने में ही सही 
प्यार करने। 
*****

बुधवार, 6 मई 2015

ये तीन आकृतियाँ !

!



जीवन में
      लोगों के लिए ,
     ये तीनों महान आत्माएं 
      प्रश्नों के उत्तर लेकर   
फिर से आयीं हैं। 
कलयुग में उठ रहे 
प्रश्नों को लेकर 
अपने चरित्र पर उछलते कीचड से 
बचाने को अपने अस्तित्व को खुद आये हैं। 
ये तीनों 
राम , सीता और लक्ष्मण हैं। 
हम बार बार उठाते है प्रश्न ?
राम को 
कायर , विवश और स्वार्थी भी कहा ,
अपने अधिकार छोड़ 
महलों का सुख त्याग,
नंगे पाँव
जंगलों में भटकते ,
पत्नी खोयी ,
भाई को दांव पर लगाया।
सीता सी पत्नी मिली तो 
फिर अग्निपरीक्षा क्यों?
अग्निपरीक्षा भी देकर विश्वास नहीं,
मिथ्यारोपों के भय से फिर त्यागा क्यों ?
राम बोले -
मानव बन 
अपने देवत्व को त्यागा नहीं जाता। 
धरती पर जन्मा 
तो धरती से जुड़ना था। 
यहाँ पर रहकर 
जीवन का एक आदर्श बनाना था। 
तभी तो अपनी मर्यादा को तोड़ नहीं पाया। 
मानवों में एक आदर्श रचना था। 
तभी तो मानवों में पूज्य हैं  राम . 
सीता  की आत्मा 
शांत , मौन  
पति अनुगामिनी ,
अपनी शुचिता के लिए 
अग्नि में प्रविष्ट हुई। 
फिर दे अग्नि परीक्षा 
आत्मा देह में प्रविष्ट हुई। 
फिर भी 
लांक्षन जिया 
लेकिन नारी का सम्मान 
नहीं आत्मसम्मान को 
अपने साथ जोड़ कर 
नारी को प्रतिमान दिया। 
 तीसरी लक्ष्मण की आत्मा -
 क्रोधी , संयमित और आज्ञाकारी ,
राजसुख, गृहसुख , पत्नीसुख 
सब त्याग कर
चौदह साल 
बिना सोये ,
रक्षा में खड़े खड़े गुजारे। 
तभी तो 
मेघनाद का वध किया।
माँ की रक्षा में 
दिन रात एक किया। 
और फिर 
उसी माँ को 
घर से दूर मुनि आश्रम छोड़ा। 
फिर भी मैं दोषी ?
पत्नी का दोषी ,
माँ का दोषी ,
मानवता का दोषी ,
अपने रिश्तों का दोषी ,
नहीं लक्ष्मण तो 
राम का अनुगामी भाई ,
सबकी नजर में दोषी।
लेकिन आज भी 
लक्ष्मण जिन्दा है इंसानों में। 
और फिर इन्हीं चरित्रों को 
दुहरा रही है दुनियां। 
इसी लिए हमारी आत्माएं 
इस युग में रूबरू हैं।




                               

बुधवार, 22 अप्रैल 2015

विश्व पृथ्वी दिवस !

मैं धरती
मैं पृथ्वी
मैं धरा कही जाती हूँ।
मैं जीवन
मैं घर द्वार
मैं सरिता ,जंगल -वन , पर्वत,
सदियों से धारे हूँ।
सदियों से
सब जीव मुझसे जीवन लेकर
जीते , फलते और फूलते आ रहे हैं,
मेरी संतति कहे जाते हैं।
जब तक माँ समझा मुझको
मान और सम्मान दिया ,
मैं माँ 
संतति तुम सबको
पाल रही थी,
पाल रही हूँ।
फिर बदल दस्तूर जहाँ का
संतति हुई  माँ से बढ़ कर
मैं बेचारी मौन हो गयी।
हरीतिमा मेरी
जो था मेरा पहला श्रृंगार
सबसे पहले लिया उतार।
पाट दिए तुमने
कुएँ , जलाशय , झील ,बावड़ी
बांध दिया सरिता की गति को ,
सूखी धरती कितना जिएगी ?
वायु प्रदूषण ,
जल प्रदूषण ,
ध्वनि प्रदूषण
इतने तो उपहार दिए।
मेरे ऊपर लाद दिया है तुमने
बोझ मेरे तन से ज्यादा ,
सिसक रही हूँ ,
कराह रही हूँ ,
तुम बधिरों से चुप हो  लगाये।
गर क्रोध भरी माँ ,
बेटों को ताड़ना दे ,
सुधर जाओ ,
लेकिन तुम मानव 
ईश्वर बन रहे हो। 
अब शर्म आती है ,
अपनी संतान कहते ,
मेरे क्रोध से 
तुम भयभीत नहीं। 
नहीं चाहती अपनी ही संतति को 
फिर अपने गर्भ में समां लूँ। 
अब मजबूर हूँ ,
सहन नहीं होता 
बोझ तुम्हारे प्रगति का। 
अब भी सजग न हुए तो 
सिर्फ तुम रहोगे ,
मैं नहीं ,
लेकिन तुम रहोगे कहाँ ?
गर समझ सको तो 
समझो अब भी 
माँ के बिना जीवन 
जी न सकोगे ,
गर दूसरी धरा का निर्माण 
कर सको तो 
करके जी लेना।

























बुधवार, 15 अप्रैल 2015

प्रेम !

प्रेम 
वह पवित्र भाव ,
जिसमें सिर्फ और सिर्फ 
निर्मल, निश्छल और निष्पाप 
आत्मा का समावेश है,
कहीं कोई 
तृष्णा , चाह या स्वार्थ नहीं,
आत्मा से आत्मा का 
मिलन ही प्रेम है। 
ये जरूरी तो नहीं 
कि रुक्मणी का प्रेम 
राधा सा प्रेम हो ,
गोपियों का प्रेम 
सत्यभामा सा अधिकार चाहे। 
तभी तो राधा 
सदैव कृष्ण के नाम से जुडी 
पहले राधा फिर कृष्ण 
राधाकृष्ण , राधारमण 
राधेश्याम 
यही सम्बोधन कृष्ण के प्रतीक 
किस लिए बने ?
प्रेम के आत्मा से जुड़े 
रिश्तों का प्रतीक रूप 
ये प्रेम कभी सम्पूर्ण न हुआ हो ,
जुड़े तो लेकिन 
इस दुनियाँ की नजर में 
मीरा का प्रेम,
राधा का प्रेम ,
सिर्फ पूजने के लिए है। 
प्रेम पूजा ही तो है।

गुरुवार, 2 अप्रैल 2015

नदी का जीवन सन्देश !


 




सरिता तीरे
धीरे धीरे
मंद प्रवाहित
सुखद समीरे ,
लहरें थामें अपनाआँचल
साक्षी हैं
ये लहरें औ' जल।
जीवन क्रम भी
उदित सूर्य
तप्त सूर्य
या फिर
शांत रक्तवर्ण सूर्य से
जुड़ा जो रहता है।
ये सरिता
अपने जल में
जीवन के हर आश्रम को
चाहे वो
ब्रह्मचर्य , गृहस्थ ,वानप्रस्थ और संन्यास हों
हर एक को
एक दिन के सूर्योदय से
सूर्यास्त तक जी लेती  हैं।
रोज जीती है
पर कभी क्षरित नहीं होती.
मानव जीवन की
समरस , समतल , सम्प्रवाह लिए
देती है एक सन्देश
सब कुछ समाहित करो,
अपने अंतर में
 सत्य - असत्य ,
क्षम्य - अक्षम्य,
और पाप और पुण्य भी।